Happy Mahavir Jayanti 2023: अपने अलौकिक व्यक्तित्व व दिव्यता से भारतीय संस्कृति के इतिहास में एक क्रांतिकारी युग का निर्माण करने वाले जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर, सत्य और अहिंसा के अग्रदूत भगवान महावीर का जन्म आज से लगभग 2621 वर्ष पूर्व बिहार प्रांत के कुंडलग्राम नगर के राजा सिद्धार्थ व महारानी त्रिशला के यहां चैत्र शुक्ल त्रयोदशी के पावन दिवस पर हुआ। जन्म से पूर्व ही माता त्रिशला ने 14 स्वप्न देखे। स्वप्न शास्त्रज्ञों ने बताया था कि माता त्रिशला की कुक्षि से एक ऐसे तेजस्वी पुत्र का जन्म होगा जो अपने पराक्रम से या तो चक्रवर्ती सम्राट बनेगा या तीर्थंकर बनकर संसार को ज्ञान का प्रकाश देगा। महारानी त्रिशला के यहां इस पुण्यात्मा के अवतरित होते ही राजा सिद्धार्थ के राज्य, मान-प्रतिष्ठा, धन-धान्य में वृद्धि होने लगी। इसी कारण राजकुमार का नाम ‘वर्धमान’ रखा गया।
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ये बचपन से ही बड़े साहसी व निर्भीक थे। एक बार वह कुछ बाल साथियों के साथ खेल रहे थे, अकस्मात तेज फुंकारें मारता हुआ एक भयंकर सर्प दिखाई दिया। सब बालक भाग गए लेकिन बिना डरे इन्होंने सांप को पकड़ा और उसे किसी एकांत स्थान पर छोड़ आए। शीघ्र ही अपने बल और पराक्रम युक्त कार्यों के कारण वह ‘महावीर’ के नाम से प्रसिद्ध हो गए। अब तक वह युवावस्था में प्रवेश कर चुके थे लेकिन इनका मन सांसारिक कार्यों से विरक्त था। जब कभी एकांत मिलता तो ये चिंतन में डूब जाते व घंटों आध्यात्मिक विचार-सागर में डुबकियां लगाते।
‘महावीर’ की इस चिंतनशील प्रवृत्ति से राजा सिद्धार्थ डरते थे। फलत: कौशल नरेश समरवीर की अत्यंत सुंदर सुपुत्री यशोदा के साथ इनकी शादी कर दी गई। इनके यहां एक पुत्री ‘प्रियदर्शना’ का जन्म हुआ। 28 वर्ष की आयु में ही इनके माता-पिता के देहावसान के बाद परिवार एवं प्रजा के अत्यधिक आग्रह के बावजूद इन्होंने राजसिंहासन पर बैठना स्वीकार नहीं किया तथा 30 वर्ष की आयु में विशाल साम्राज्य व लक्ष्मी को ठुकरा कर अकिंचन भिक्षु बन निर्जन वनों की ओर चल पड़े।
ध्यान साधना करते हुए सागर की भांति गंभीर व मेरू की तरह दृढ़ बने रहे भगवान महावीर ने साधना काल के दौरान यह दृढ़ प्रतिज्ञा धारण की थी कि जब तक केवल ज्ञान प्राप्त नहीं होगा, तब तक जन-सम्पर्क से अलग रहूंगा। इस दौरान इन्हें अनेक कष्टों एवं विपत्तियों का सामना करना पड़ा। कहीं आपके पीछे शिकारी कुत्ते छोड़े गए, ग्वालों द्वारा आपसे पूछे गए प्रश्न का उत्तर न पाकर आपके पैरों मेें अग्नि जलाई गई, कानों में कीलें ठोकी गईं पर महावीर अपने ध्यान में अडिग रहे।
कष्ट और विपत्तियां इनके साधना पथ में अवरोध पैदा न कर सकीं। अन्तत: साढ़े 12 वर्ष की कठोर साधना के परिणामस्वरूप बैसाख शुक्ल दशमी के दिन जृम्भक गांव के समीप बहने वाली गजुकूला नदी के तट पर इन्हें केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई, जिसके प्रकाश से चारों दिशाएं आलोकित हो उठीं। अपने साधनाकाल में आपने चंडकोशिक जैसे भयंकर सर्प का उद्धार किया। केवल ज्ञान की ज्योति पाकर भगवान ‘महावीर’ ने भारत के धार्मिक व सामाजिक सुधार का निश्चय किया। इनका मूलमंत्र था ‘स्वयं जीओ और दूसरों को जीने दो’। नारी जाति के उद्धार के लिए इन्होंने चंदन बाला के हाथों से 3 दिन का बासी भोजन स्वीकार किया। नारी को समाज में समानता का अधिकार दिलाया।
इन्होंने स्पष्ट कहा कि पुरुष ही नहीं, नारी भी अपने तप-त्याग और ज्ञान-आराधना से मोक्ष की अधिकारी बन सकती है इसलिए इन्होंने नारी को भी अपने संघ में दीक्षा प्रदान की। इनके संघ में 14,000 साधु व 36,000 साध्वियां थीं। आपके प्रमुख शिष्य इंद्रभूति गौतम स्वामी थे और साध्वी संघ की प्रमुख महासती चंदन बाला थीं। भगवान ‘महावीर’ के अनुसार अहिंसा, सत्य, असत्य, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह 5 जीवन सूत्र हैं, जिनके आधार पर किसी भी राष्ट्र व समाज को सुखी एवं सम्पन्न बनाया जा सकता है।
केवल ज्ञान प्राप्त होने पर ये 30 वर्ष निरंतर जन कल्याण के लिए दूर-दूर के प्रदेशों में घूमकर जनता को सत्य का संदेश देते रहे। इनका अंतिम चातुर्मास पावापुरी में राजा हस्तिपाल की लेखशाला में हुआ। धर्म प्रचार करते हुए कार्तिक मास की अमावस्या आ चुकी थी। स्वाति नक्षत्र का योग चल रहा था। भगवान सोलह प्रहर से निरंतर पैतृक सम्पत्ति के रूप में धर्म प्रवचन कर रहे थे। नौ लिच्छवि और नौ मगी व अठारह गणनरेश उनकी सेवा में उपस्थित थे। धर्म देशना करते हुए भगवान परिनिर्वाण को प्राप्त हो गए। आज भी उनका जीवन और सिद्धांत उपयोगी एवं जीवन को सुखमय बनाने में समर्थ हैं।